एक प्रेम कविता, उच्छल भी संतुलित भी।

यही है वह जगह

[ अब की गरमियों में पहला पड़ाव हैदराबाद था । जहाँ एक जानदार व्यक्ति – लाल्टू से मुलाकात हुई । उनकी कविताएँ मिलीं , पेश हैं । ]

तुमने कहा अरे !अरे क्या ! मैंने कहाफिर लिया लेखा जोखा आपस में हमनेआपस के छूटे हुए दिनों कातुमने पिलाया पानीमैंने सोचा कब छूटेगा तुम्हारा बदनदिन भर के काम से

तुम्हारी पीठ पर से कुछ अणुमेरी हस्त – रेखाओं में बस गये हैंजहां भी जाता हूंलोगों से हाथ मिलाता हूंउनके शरीर में कुछ तुम आ जाती होऔर वे सुन्दर लगने लगते हैं अचानककम नहीं होती मुझमें तुमजहां कहीं से भी लौटता हूंतुम होती हो हथेलियों परसड़कों से नाचते – नाचते लौटता हूं घरदरवाजा खोलते ही खिलखिलाता हंस उठता हैदीवार पर पसरा भगतसिंह

तुम्हारा न होना मेरा अपना न होना है

जीता हूं…

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