एक प्रेम कविता, उच्छल भी संतुलित भी।
[ अब की गरमियों में पहला पड़ाव हैदराबाद था । जहाँ एक जानदार व्यक्ति – लाल्टू से मुलाकात हुई । उनकी कविताएँ मिलीं , पेश हैं । ]
१
तुमने कहा अरे !अरे क्या ! मैंने कहाफिर लिया लेखा जोखा आपस में हमनेआपस के छूटे हुए दिनों कातुमने पिलाया पानीमैंने सोचा कब छूटेगा तुम्हारा बदनदिन भर के काम से
२
तुम्हारी पीठ पर से कुछ अणुमेरी हस्त – रेखाओं में बस गये हैंजहां भी जाता हूंलोगों से हाथ मिलाता हूंउनके शरीर में कुछ तुम आ जाती होऔर वे सुन्दर लगने लगते हैं अचानककम नहीं होती मुझमें तुमजहां कहीं से भी लौटता हूंतुम होती हो हथेलियों परसड़कों से नाचते – नाचते लौटता हूं घरदरवाजा खोलते ही खिलखिलाता हंस उठता हैदीवार पर पसरा भगतसिंह
३
तुम्हारा न होना मेरा अपना न होना है
जीता हूं…
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